भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? Summary – Class 11 Hindi Antra Chapter 9 Summary
भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? – भारतेंदु हरिश्चंद्र – कवि परिचय
प्रश्न :
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के जीवन एवं साहित्य का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
जीवन-परिचय-आधुनिक हिन्दी के निर्माता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म 8 सितम्बर, 1850 ई. को वाराणसी (उ.प्र.) में हुआ। इनके पिता बाबू गोपालचन्द्र बड़े अच्छे कवि थे। जब भारतेन्दु पाँच वर्ष के थे, तभी इनकी माता का स्वर्गवास हो गया और जब ये दस वर्ष के हुए तो पिता का साया भी सिर से उठ गया। शिक्षा के लिए इन्हें क्वींस कालेज में भर्ती कराया गया, पर पारिवारिक परिस्थितियों के कारण ये शिक्षा से विरत हो गए। इनकी प्रतिभा विलक्षण थी।
घर पर रहकर स्वाध्याय द्वारा अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। इन पर लक्ष्मी और सरस्वती दोनों की कृपा थी। 35 वर्ष की अल्पायु में 1885 ई. में इनका निधन हो गया। साहित्यिक परिचय- 35 वर्ष की अल्पायु में इन्होंने साहित्य, समाज और संस्कृति के लिए जो महान कार्य किया, उसे देखकर दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ती है। इस अवधि में उन्होंने अनेक संस्थाएँ स्थापित कीं और उनका सफलतापूर्वक संचालन किया।-उन्होंने ‘कवि वचन सुधा’, ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’, ‘हरिश्चन्द्र चंद्रिका’ और ‘बाला बोधिनी’ नामक पत्रिकाएँ भी निकालीं तथा एक लेखक मंडल तैयार किया। वे अन्य लेखकों के लिए प्रेरणापुंज थे। तत्कालीन विद्वत्समाज ने उन्हें ‘भारतेन्दु’ की उपाधि से सम्मानित किया।
भारतेन्दु आधुनिक हिन्दी साहित्य के सूत्रधार थे। उन्होंने हिंदी गद्य का सूत्रपात किया। उन्होंने स्वयं तो लिखा ही, साथ में अन्य स्गथियों को भी लिखने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अपने साहित्य में अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे शोषण, धर्म के नाम पर हो रहे पाखंड, ररीबी, अशिक्षा, राष्ट्रीय स्वाभिमान आदि विषयों पर खूब लिखा। वे नवजागरण के अग्रदूत बने।
हिंदी नाटक और हिंदी निबंध की परंपरा भारतेन्दु से शुरू होती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भारतेन्दु और उनके समसामयिक लेखकों पर टिप्पणी करते हुए बहुत सही कहां है कि “हास्य-विनोद की प्रवृत्ति इस काल में प्रायः सभी लेखकों में थी। प्राचीन और नवीन के संघर्ष के कारण उन्हें हास्य के आलंबन दोनों पक्षों में मिलते थे, जिस प्रकार बात-बात में बाप-दादों की दुहाई देने वाले, धर्म के आडंबर की आड़ में दुराचार छिपाने वाले पुराने खूसट उनके विनोद के लक्ष्य थे, उसी प्रकार पश्चिमी चाल-ढाल की ओर मुँह के बल गिरने वाले फैशन के गुलाम भी।”
भारतेन्दु हरिश्चंद्र का प्रभाव उनके समकालीनों पर स्पष्ट देखा जा सकता है। आधुनिक हिंदी गद्य के विकास में उनका उल्लेखनीय योगदान है। उन्होंने अपने समकालीन लेखकों का तो नेतृत्व किया ही, साथ ही परवर्ती लेखकों के लिए पथ-प्रदर्शक का कार्य भी किया। रचनाएँ-भारतेन्दु जी की प्रतिभा बहुमुखी थी। वे नाटककार थे, कवि थे, पत्रकार थे, व्यंग्य-लेखक थे और समालोचक थे। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-
नाटक – ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’, ‘चंद्रावली’, ‘विषस्य विषमौषधम’, ‘भारत दुर्दशा’, ‘नील देवी ‘, ‘अंधेर नगरी’ और ‘सत्य हरिश्चंद्र’।
काव्य-‘र्रेम फुलवारी’, ‘प्रेम-माधुरी’, ‘प्रेम-मालिका’, ‘प्रेम-प्रलाप’ आदि।
भाषा-शैली – भारतेन्दु ने अपने युग में भाषा का एक नवीन निखरा हुआ रूप प्रस्तुत किया। वे विषयानुसार भाषा प्रयोग में दक्ष: थे। गंभीर विषयों के प्रतिपादन में उनकी भाषा संस्कृत पदावली की ओर झुकने लगती है और इतिहास, यात्रा आदि विषयों पर लिखते समय वह व्यावहारिक हो जाती है। भावपूर्ण प्रसंगों में शैली मधुर और रागात्मक हो जाती है। मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से उनकी भाषा और भी अधिक सजीव हो गई है।
Bharatvarsh Ki Unnati Kaise Ho Sakti Hai Class 11 Hindi Summary
हमारी पाठ्यपुस्तक में लेखक का बलिया के ददरी मेले में दिया गया व्याख्यान चुना गया है।
‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है’ भारतेन्दु का प्रसिद्ध भाषण है। इसमें एक ओर ब्रिटिश शासन की मनमानी पर व्यंग्य है, तो दूसरी ओर अंग्रेजों के परिश्रमी स्वभाव और काम के प्रति लगाव के प्रति आदर भी है। भारतेन्दु ने इस भाषण में हिंदुस्तानियों (हिंदू और मुसलमान-दोनों) की उन कमियों को भी बड़े ही रोचक ढंग से उभारा है। उनके अनुसार, इन कमियों को दूर करने पर ही भारतवर्ष की उन्नति हो सकती है। जनसंख्या-नियंत्रण, श्रम की महत्ता, आत्मबल और त्याग भावना को भारतेन्दु ने उन्नति के लिए अनिवार्य माना है और अत्यंत प्रेरक ढंग से व्यक्त किया है। भाषण-शैली होने के कारण इस पाठ में बातों को खोलकर तथा अनेक दृष्टांतों-प्रसंगों के माध्यम से कहा गया है। अतः इस भाषण का गहरा प्रभाव पड़ता है।
शब्दार्थ (Word Meanings) :
- महसूल = कर, टैक्स (Octroi Tax)
- चुंगी की कतवार = म्युनिसिपालिटी का कचरा (Rubbish of Municipality)
- रंग-महल = भोग-विलास का स्थान (Enjoyment place)
- कमबख्ती = अभागापन (Unfortunate)
- मर्दुमशुमारी = जनगणना (Census)
- रसातल = पाताल (Downwards)
- मिसाल = उदाहरण (Example)
- तिफ्ली = बचपन से संबंधित (Relating to childhood)
- लागत = कीमत (Cost)
- कोप = क्रोध (Anger)
- निकम्मापन = सुस्ती (Laziness)
- हूस = गंवार (Uncivilized)
- कंटक = काँटा (Thorn)
- दरिद्र = गरीब (Poor)
- उपवास = व्रत (Fast)
- सत्यानाश = पूरी बर्बादी (Fully destruction)
पाठ का सार –
‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ शीर्षक निबंध लेखक द्वारा दिया गया भाषण है, जो उसने बलिया के एक मेले में दिया था। इसमें लेखक ने तत्कालीन भारतवासियों की कमियों की ओर संकेत करते हुए उन्नति के कुछ उपाय भी सुझाएं हैं। लेखक बताता है कि हिंदुस्तानी लोग रेल की गाड़ी की तरह हैं। उन्हें इंजन बनना नहीं आता। इन लोगों को कोई चलाने वाला होना चाहिए। हिंदुस्तानियों को उनका बल दिलाने की जरूरत है। राजे-महाराजाओं को अपनी मौज-मस्ती से फुर्सत नहीं। अंग्रेज अपना समय खोना नहीं चाहते थे। भारतवर्ष के जिन लोगों के जिम्मे विद्या और नीति को फैलाने की जिम्मेदारी थी, उनको निकम्मेपन ने घेर लिया।
इनके पूर्वजों ने ही सामान्य वस्तुओं से तारा-ग्रह आदि वेध करके उनकी गति को लिख दिया। विदेशियों ने सोलह लाख रुपए खर्च करके दूरबीन बनाई। अमेरिकन, अंग्रेज तथा फ्रांसीसी तेज गति से भागे चले जा रहे हैं। केवल भारतवासियों को लाज नहीं आती। हम लोग सब सामान होने पर भी आलस्य और संकोचवश उनका लाभ नहीं उठा पाते। बहुत से लोग बहाना करते हैं कि उन्हें पेट के धंधे से ही फुर्सत नहीं मिलती। जिनका पेट भरा है, वे ही उन्नति की बात सोच सकते हैं। इंगलैंड में भी किसान, गाड़ीवाले, खेतवाले, मजदूर और कोचवान हैं।
सभी देशों में सभी के पेट नहीं भरे होते। वहाँ कोचवान भी समय निकालकर अखबार पढ़ लेते हैं। हमारे यहाँ लोगों में निकम्मापन बढ़ता चला जा रहा है। काम न करने वालों की संख्या निरंतर बढ़ती चली जा रही है। चारों ओर दरिद्रता का राज है। लोगों को अपनी इज्जत बचाना भी कठिन हो रहा है। देश की जनसंख्या तो निरतर बढ़ रही है, पर धन घटता चला जा रहा है। राजा महाराजाओं और पंडितों की कथाओं से कुछ नहीं मिलने वाला। हमें उन्नति करने के लिए प्रयास करने होंगे। सब बातों को छोड़कर रास्ते के काँटों को हटाना होगा। हमें अपनी खराबियों के कारणों की खोज करनी होगी। सभी प्रकार के चोरों को पकड़कर कैद करना होगा। लोकनिंदा से डरने की कतई आवश्यकता नहीं है। कुछ लोगों को तकलीफ तो पहुँचेगी ही। तभी देश की दशा सुधरेगी। अब लेखक उन्नति की रूपरेखा बताता है।
सब उन्नतियों का मूल धर्म है। सबसे पहले धर्म की ही उन्नति करनी होगी। धर्म की आड़ में नाना प्रकार की रीतियाँ जारी हैं। मेलों में लोग दूर-दूर से आकर मिलते हैं। मास में एक-दो दिन उपवास रखने से शरीर शुद्ध हो जाता है। गंगा-स्नान का अपना महत्त्व है। दीवाली-होली भी इसीलिए हैं कि बसंत की बिगड़ी हवा स्थान-स्थान पर अग्नि जलने से स्वच्छ हो जाए। कुछ खराबी बीच में आई है। उन लोगों ने धर्म के असली अर्थ को नहीं समझा और इन बातों को ही वास्तविक धर्म समझ लिया। वास्तविक धर्म तो केवल ईश्वर के चरणकमल का भजन है।
जो समाज धर्म है उसे देश-काल के अनुसार शोधा और बदला जा सकता है। कई लोगों ने बिना समझे नए-नए धर्म बनाकर शास्त्रों में रख दिए। उनके लिए सभी तिथियाँ व्रत और सभी स्थान तीर्थ हो गए। देश और काल के अनुसार जो बातें अनुकूल और उपकारी हैं, उन्हें ग्रहण करना चाहिए। बहुत सी बातें समाज-विरुद्ध मानी गई हैं किंतु धर्मशास्त्रों में जिनका विधान है, उन्हें चलाना चाहिए। जैसे-जहाज का सफर, विधवा-विवाह आदि। लेखक का यह भी परामर्श है कि लड़कों का विवाह छोटी आयु में नहीं करना चाहिए। माँ-बाप को उनका शरीर पुष्ट बनाना चाहिए, फिर उनकी पढ़ाई की ओर ध्यान देना चाहिए, फिर विवाह के बंधन में डालिए। लोगों को लड़कियों को भी पढ़ाना चाहिए, पर उन्हें ऐसी शिक्षा मिलनी चाहिए जिससे वे देश और कुलधर्म को सीखें और पति की भक्ति करें।
लेखक सभी धर्मों के अनुयायियों के मेल-मिलाप पर भी बल देता है। सभी धर्मों एवं जातियों का आदर किया जाना चाहिए। लेखक मुसलमान भाइयों को सलाह देते हुए कहता है कि उन्हें हिंदुस्तान में बसकर हिंदुओं को नीचा नहीं समझना चाहिए। उन्हें हिंदुओं के दिल को दुखाने वाली बातें नहीं करनी चाहिए। कई बातें मुसलमानों को हिंदुओं से हटकर सहजता से प्राप्त हैं। उनमें जाति नहीं है, विलायत जाने पर रोक नहीं है। इसके बावजूद इन लोगों ने अपनी दशा नहीं सुधारी है। अब उन्हें हठधर्मी छोड़नी होगी। उन्हें अपने लड़कों को मीर हसन की ‘मसनवी’ तथा ‘इंदरसभा’ पढ़ाकर उनका सत्यानाश नहीं कराना चाहिए। उन्हें फैशन से भी बचाना होगा। लड़कों को अच्छी तालीम दो, उन्हें रोजगार सिखाओ और मेहनत करने की आदत डालो।
हिंदुओं को भी मत-मतांतर का आग्रह छोड़ना होगा। रंग, जाति, वर्ण-भेद छोड़कर हिंदू-हिंदू की सहायता करनी चाहिए। सभी से मिलकर चलना होगा। उन्हें यह सोचना-समझना होगा कि दियासलाई जैसी छोटी-सी वस्तु भी विदेश से क्यों आती है? उनके दैनिक प्रयोग के कपड़े भी बाहर से क्यों आते हैं? इन कपड़ों को पहनकर तो ऐसा लगता है कि हम मंगनी के कपड़े पहनकर महफिल में आ गए हैं। अब तो केवल मूँछें ही अपने घर की प्रतीत होती हैं। अतः अब आवश्यकता है नींद से उठकर बैठने और तरक्की की ओर कदम बढ़ाने की। हमें परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा का भरोसा नहीं करना चाहिए। देश में अपनी भाषा की उन्नति करना भावश्यक है।
भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है? सप्रसंग व्याख्या
1. बहुत लोग यह कहेंगे कि हमको पेट के धंधे के मारे. छुट्टी ही नहीं रहती बाबा, हम क्या उन्नति करें? तुम्हारा पेट भरा है तुमको दून की सूझती है। यह कहना उनकी बहुत भूल है। इंगलैंड का पेट भी कभी यों ही खाली था। उसने एक हाथ से अपना पेट भरा, दूसरे हाथ से उन्नति की राह के काँटों को साफ किया। क्या इंग्लैंड में किसान, खेतवाले, गाड़ीवान, मजदूर, कोचवान आदि नहीं हैं? किसी देश में भी सभी पेट भरे हुए नहीं होते। किंतु वे लोग जहाँ खेत जोतते-बोते हैं वहीं उसके साथ यह भी सोचते हैं कि ऐसी और कौन नई कल या मसाला बनावैं, जिसमें इस खेती में आगे से दूना अन्न उपजै। विलायत में गाड़ी के कोचवान भी अखबार पढ़ते हैं।
जब मालिक उतरकर किसी दोस्त के यहाँ गया उसी समय कोचवान ने गद्दी के नीचे से अखबार निकाला। यहाँ उतनी देर कोचवान हुक्का पिएगा या गप्प करेगा। सो गप्प भी निकम्मी। वहाँ के लोग गप्प ही में देश के प्रबंध छाँटते हैं। सिद्धांत यह कि वहाँ के लोगों का यह सिद्धांत है कि एक छिन भी व्यर्थ न जाए। उसके बदले यहाँ के लोगों को जितना निकम्मापन हो उतना ही वह बड़ा अमीर समझा जाता है।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हिंदी साहित्य में आधुनिक युग के प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित निबंध ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ से अवतरित है। यह निबंध मूलतः उनका एक प्रसिद्ध भाषण है। इसमें उन्होंने हिंदुस्तानियों के आलस्य पर कटाक्ष करते हुए उन्हें काम करने के लिए प्रेरित किया है।
व्याख्या – लेखक उन लोगों को करारा उत्तर देता है जो यह बहाना बनाते हैं कि उन्हें पेट भरने के लिए काम-धंधे से ही फुर्सत नहीं मिलती, ऐसे में वे देश की उन्नति में कैसे हाथ बटाएँ। हाँ, जिनका पेट भरा है, वे जरूर इसे कर सकते हैं। लेखक का कहना है कि उनका ऐसा सोचना और कहना बहुत बड़ी गलती है। वह विदेश का उदाहरण देकर बताता है कि इंग्ैैंड के लोगों के पेट भी कभी हमारी तरह ही खाली थे। वहाँ सदा से ही अमीरी नहीं थी। पर उन्होंने अपना प्रयास पेट भरने के साथ-साथ अपने रास्ते की बांधांओं को दूर करने में भी लगाया। इंग्लैंड में भी किसान, खेती करने वाले, गाड़ीवान, मजदूर तथा कोचवान मौजूद हैं। किसी भी देश में सभी लोग संपन्न नहीं होते। हममें और उनमें एक अंतर है। वे लोग अपना काम करते हुए उन्नति का रास्ता भी सोचते हैं।
वहाँ के किसान अपनी खेती को बढ़ाने के उपाय भी सोचते और करते हैं। विलायत में कोचवान तक अखबार पढ़कर दुनिया की घटनाओं से परिचित रहते हैं, जबकि हिंदुस्तान का कोचवान हुक्का पीकर या गप्पें हाँककर अपना समय बर्बाद करता है। विलायत का कोचवान मौका पाकर गद्दी के नीचे दबा अखबार निकालकर अखबार पढ़ता है। हमारे यहाँ गप्पों में ही देश की बातें कही जाती हैं। वहाँ के लोग एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गँवाते। हमारे देश में जो जितना निकम्मा होता है, उसे उतना बड़ा अमीर समझा जाता है। यहाँ निकम्मापन अवगुण नहीं माना जाता, अपितु उसे महिमामंडित किया जाता है।
विशेष :
1. लेखक ने भारतीयों और विदेशियों की तुलनात्मक समीक्षा कर तर्कसंगत बाते कही हैं।
2. प्रारंभिक खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है। भाषा सरल एवं सुबोध है।
2. भाइयो, राजा-महाराजों का मुँह मत देखो, मत यह आशा रक्खो कि पंडित जी कथा में कोई ऐसा उपाय भी बतलावैंगे कि देश का रुपया और बुद्धि बढ़े। तुम आप ही कमर कसो, आलस छोड़ो। कब तक अपने को जंगली हूस मूर्ख बोदे डरपोकने पुकरवाओगे। दौड़ो इस घोड़दौड़ में जो पीछे पड़े तो फिर कहीं ठिकाना नहीं है। “फिर कब राम जनकपुर ऐहैं।”‘ अबकी जो पीछे पड़े तो फिर रसातल ही पहुँचोगे।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हिंदी साहित्य में आधुनिक युग के प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित निबंध ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ से अवतरित है। लेखक उन उपायों का उल्लेख करता है जिनसे भारतवर्ष की उन्नति हो सकें।
व्याख्या – लेखक आम लोगों को संबोधित करते हुए कहता है कि उन्हें अपनी तरक्की के लिए राजा-महाराजाओं अर्थात् उच्च संपन्न वर्ग की ओर नहीं देखना चाहिए। वे तुम्हारे लिए कुछ नहीं करेंगे।उनसे कोई भी आशा रखना व्यर्थ है। पंडितजी भी अपनी कथा में देश की समृद्धि और बुद्धि बढ़ाने का कोई तरीका नहीं बताएंगे। उन्हें तो सिर्फ अपने स्वार्थ को देखना है और आपको ठगना है। तुम्हें स्वयं ही कमर कसकर तैयार होना होगा।और आलस्य को छोड़ना होगा। जरा सोचो, तुम कब तक जंगली, बुद्धू. मूर्ख और डरपोक कहलाओगे? अब इन बातों से अपना पीछा छुड़ाओ। तरक्की दौड़ में तुम भी भाग लो और आगे निकलकर दिखाओ। यदि तुम इसमें पीछे रह गए तो फिर तुम्हें कहीं ठिकाना नहीं मिलेगा। यह मौका बार-बार नहीं मिलने वाला है। इसका लाभ उठाओ। यदि अबकी बार भी पिछड़ गए तो फिर नीचे की ओर गिरते चले जाओगे। इस पतन की कोई सीमा नहीं है। लेखक लोगों को तरक्की की दौड़ में पूरी लगन के साथ दौड़ने के लिए प्रेरित कर रहा है।
विशेष :
1. प्रस्तुत गद्यांश प्रेरक है।
2. स्वावलंबी बनने की प्रेरणा दी गई है।
3. रामचरितमानस की चौपाई का एक अंश देकर अपने कथ्य को सशक्त बनाया गया है-” फिर कब राम जनकपुर हैं।”
3. जो लोग अपने को देशहितैषी लगाते हो, वह अपने सुख को होम करके, अपने धन और मान का बलिदान करके कमर कस के उठो। देखादेखी थोड़े दिन में सब हो जाएगा। अपनी खराबियों के मूल कारणों को खोजो। कोई धर्म की आड़ में, कोई देश की चाल की आड़ में, कोई सुख की आड़ में छिपे हैं। उन चोरों को वहाँ-वहाँ से पकड़-पकड़ कर लाओ। उनको बाँध-बाँध कर कैद करो। हम इससे बढ़कर क्या कहें कि जैसे तुम्हारे घर में कोई पुरुष व्यभिचार करने आवै तो जिस क्रोध से उसको पकड़कर मारोगे और जहाँ तक तुम्हारे में शक्ति होगी उसका सत्यानाश करोगे। उसी तरह इस समय जो-जो बातैं तुम्हारे उन्नति-पथ में काँटा हों, उनकी जड़ खोदकर फेंक दो। कुछ मत डरो। जब तक सौ-दो सौ मनुष्य बदनाम न होंगे, जात से बाहर न निकाले जाएँगे, दरिद्र न हो जाएंगे, कैद न होंगे, वरंच जान से न मारे जाएँगे तब तक कोई देश भी न सुधरैगा।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हिंदी साहित्य में आधुनिक युग के प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित निबंध ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ से अवतरित है। लेखक देश की तरक्की का मार्ग सुझाते हुए खराबियों को ढूँढ़ने और उन्हें खत्म करने पर बल देता है।
व्याख्या – लेखक का कहना है कि देश का हितैषी बनने के लिए अपने सुख को त्यागना पड़ता है। इसके साथ-साथ धन और मान-सम्मान को भी कुर्बान क्रना पड़ता है। इसको करने के बाद कमर कसके पूरी तरह तैयार हो जाओ। तुम्हें देखकर और लोग भी तैयार हो जाएँगे। अब हमें उन कारणों की खोज करनी होगी जो देश को खराब कर रहे हैं। कई ऐसे तत्व धर्म की ओट में छिपे हैं तो कई देश की चाल तथा सुख की आड़ में छिपे हैं। ये एक प्रकार के चोर हैं। इन्हें पकड़ना होगा और बाँधकर कैद करना होगा अर्थात् देश में खराबी करने वालों को बेनकाब करना होगा। लेखक लोगों को समझाता है कि यदि तुम्हारे घर में कोई व्यभिचारी आ जाता है तब तुम उस पर क्रोध करके, पकड़कर मारते हो और अपनी ताकत भर उसको बर्बाद करते हो। इसी भावना को अपनाकर तुम अपनी उन्नति की राह की मुसीबतों को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए तैयार हो जाओ। इसमें डरने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। देश का भला करने के काम में सौ-दो सौ मनुष्य बदनाम भी होंगे, कुछ को जाति से बाहर भी निकाला जाएगा, गरीब भी हो जाएँगे, कैद भी होंगे और जान से भी मारे जाएंगे। हमें इनकी परवाह नहीं करनी चाहिए। इसके बाद ही देश सुधर पाएगा।
विशेष :
1. लेखक अपनी बात स्पष्ट शब्दों में कहता है।
2. देश की उन्नति के प्रति लेखक की चिता स्पष्ट व्यंजित होती है।
3. सरल एवं सुबोध भाषा-शैली का अनुसरण किया गया है।
4. भाई हिंदुओं! तुम भी मत-मतांतर का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामंत्र का जाप करो। जो हिंदुस्तान में रहे, चाहे किसी रंग, किसी जाति का क्यों न हो, हिंदू, हिंदू की सहायता करो। बंगाली, मरट्ठा, पंजाबी, मदरासी, वैदिक, जैन, ब्रह्यो, मुसलमान सब एक का हाथ एक पकड़ो। कारीगरी जिसमें तुम्हारे यहाँ बढ़ै, तुम्हारा रुपया तुम्हारे ही देश में रहै वह करो। देखो, जैसे हजार धारा होकर गंगा समुद्द में मिली हैं, वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हज़ार तरह से इंग्लैंड, फरांसीस, जर्मनी, अमेरिका को जाती है। दीयासलाई ऐसी तुच्छ वस्तु भी वहीं से आती है। जरा अपने ही को देखो। तुम जिस मारकीन की धोती पहने हो वह अमेरिका की बिनी है।
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश हिंदी साहित्य में आधुनिक युग के प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा रचित निबंध ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ से उद्धृत है। यह लेख लेखक द्वारा दिया गया एक भाषण है। यही कारण है कि इसमें संबोधन शैली का प्रयोग है।
व्याख्या – लेखक देश की उन्नति के लिए विभिन्न धर्माविलंबियों को एकजुट होने का आह्नन करता है। वह हिंदुओं को परामर्श देता है कि उन्हें अपने विभिन्न मत-मतांतरों की रूढ़िवादिता एवं कट्रपन को छेड़ देना चाहिए। इसके स्थान पर आपस में प्रेम बढ़ाने के उपाय करने चाहिए। यही महामंत्र उन्हें जपना चाहिए। उन्हें हिंदुस्तान में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति की मदद करनी चाहिए। इसमें वर्ण, जाति का अंतर नहीं करना चाहिए। प्रत्येक हिंदू हर हिंदू की सहायता करे।
सभी धरों, सभी संप्रदायों के लोगों के साथ सहयोग करने की नीति अपनानी होगी। ऐसे काम करने चाहिए जिनसे उनका व्यवसाय बढ़े और आर्थिक समृद्धि आए। देश का धन देश में ही रहे, बाहर न जाने पाए। ध्यानपूर्वक देखो कि अब तुम्हारा धन इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और अमेरिका आदि देशों में जा रहा है। लेखक गंगा का उदाहरण देकर अपनी बात स्पष्ट करता है कि गंगा हजार धारा होकर समुद्र में मिलती है ऐसे ही हमारे देश का धन अनेक धाराओं में बँटकर दूसरे देशों में जा रहा है, इसे रोको। यह बात अत्यंत लज्जा की है कि हम छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए दूसरे देशों पर निर्भर रहते हैं। दियसलाई तथा मारकीन की धोती तक दूसरे देश से आती है। इसे तो हम अपने देश में भी बना सकते हैं।
विशेष :
1. लेखक सांप्रदायिक एकता का संदेश देता है।
2. आयातित माल के प्रति चिंता व्यक्त करके स्वावलंबी बनने की प्रेरणा दी गई है।
3. खड़ी बोली के प्रारंभिक रूप के दर्शन होते हैं।